सम्राट कनिष्क एवं वारूणी का अदभुत् प्रेम Samrat Kanishk or Varuni ka prem

सम्राट कनिष्क एवं वारूणी का अदभुत् प्रेम Samrat Kanishk or Varuni ka prem

सम्राट कनिष्क एवं वारूणी का अदभुत् प्रेम

 

(फ़ोटो प्रतीकात्मक)

दृश्य -1 आलीशान राजमहल के एक बड़े से दलान कदमी करते हुए उस अत्यंत मनमोहक सुकुमार मुख पर पता नहीं क्यों हजारों भाव आ जा रहे थे ..... ढलते हुए सूरज की हल्की किरणें माघ माह के इस खुशनुमा वातावरण को और भी रौनक प्रदान कर रहीं थी , परंतु उस सुकुमार मुख पर वातावरण की रम्यता का अधिक प्रभाव नहीं पड़ रहा था , वह तो बेचैनी से चहल कदमी करने में तल्लीन था । तभी सेविका ने आकर सूचना दी कि महामंत्री शकारि आपसे भेंट करना चाहते हैं , साथ में महाराज के परम मित्र मिहिरभोज भी उनके दर्शन के इच्छुक हैं । कुषाणों के चक्रवर्ती सम्राट कनिष्क ने तनिक व्याकुलता से उन्हें तुरंत अंदर लिवा लाने का आदेश दिया । मखमल के गहरे हरे पर्दो को सरकाकर दो ओजस्वी व सजीले नौजवानों ने भीतर आकर महान चक्रवर्ती सम्राट को प्रणाम निवेदित किया , महाराज ने तत्काल पूछा क्या समाचार लाए हो मिहिर ? महाराज के क्लान्त मुख को देखकर मिहिर ने मस्तक झुका लिया और कहा , हमने देवी वारुणी से भेंट वार्ता की , परन्तु स्वामी वे तैयार नहीं है । संसार में उनकी रुचि नाममात्र भी शेष नहीं है , उनका स्पष्ट उत्तर नकारात्मक था । सुनकर महाराजा कनिष्क निढाल होकर शैया पर पर गिर पडे । मिहिरभोज ने महाराज को सांत्वना दी , परन्तु कनिष्क के नेत्रों से अश्रु धारा अविरल बह रही थी , मिहिर के गले लगकर रोने वाले उस सुकुमार को देख कर कोई स्वप्न में भी नहीं सोच सकता था कि यह जम्मूद्वीप का चक्रवर्ती सम्राट कुषाणराज कनिष्क है , जिसकी भुजाओं ने मध्य एशिया से सुदूर दक्षिण तक तथा हिंदूकुश पर्वत से नर्मदा की धारा तक समस्त भारतवर्ष को एक छत्र संस्कार व सीमाओं में बांध रखा है । मिहिर अपनी बहन को समझाओ , वह बाल्य काल से आज तक मेरे निर्मल प्रेम को भूलाकर तथागत की शरण में इतना कठोर तप कैसे करेगी ? वह मुझे व मेरी स्मृतियों को अपने मानस से मिटाकर वैराग्य धारण कर सकेगी ? आप चिन्ता ना करें महाराज हम आज संध्या को साधारण वस्त्रों में उससे मिलने का प्रयास करेंगे ।

 

 

 

 दृश्य -2

संध्या काल का समय है । एक अत्यंत तेजस्वी मुख से युक्त नव यौवना श्वेत वस्त्रों में बिना अलंकार भी माता शारदा के समान सुशोभित होती हुई एक कुशासन पर शांत मुद्रा में अपनी कुटी में बैठी हुई है । दीपक का प्रकाश युवती के मुख को दैदीप्यमान कर रहा है । तभी दो युवक भीतर आने की आज्ञा मांगते हैं , अपने भाई मिहिरभोज की आवाज से देवी वारुणी की तंद्रा भंग होती है । रूंधे हुए कंठ से वह महाराज कनिष्क को स्वागत वचन कहती है । अनेक प्रकार से अनुनय - विनय करने के उपरांत भी वारुणी वैराग्य मार्ग को व तथागत के धर्म को त्यागने के लिए तैयार नहीं होती तथा वहां से दोनों को जाने के लिए कहती है । अंधकार में दो पुरुषाकार छायाएं विलीन हो जाती हैं ।

 

दृश्य -3

 आज प्रातः काल से राजधानी पुरुषपुर में हलचल मची हुई है , आज युवराज का राज्याभिषेक होने वाला है । बाजार , महल , घरों व छतों पर बालक , महिला - पुरुष आदि से भरपूर चारों तरफ चहल - पहल । संगीत से , प्रकाश से जगमगाता राजमहल । महारानी मदनसेना आज के पश्चात राजमाता की पदवी पर विराजमान होंगीं । चारों तरफ आभूषणों , पुष्पों , सुंदर व कीमती सजावटी वस्तुओं से , देश - विदेश से आए हुए अनेकों राजपरिवारों के अतिथियों से भरा हुआ राजमहल । राजगुरु अश्वघोष राज्याभिषेक की तैयारियों में व्यस्त थे । इस सारे कोलाहल से दूर एक व्यक्ति तेजी से परूषणी नदी के किनारे बने एक छोटे से उपवन की एक समाधि पर मस्तक टिकाए आंसू बहा रहा था ..... " वरू तुम्हें आखिरी समय भी मेरा प्रेम याद ना आया , मेरी प्रिय वारूणी मैं तुम्हें दिये वचन को निभाने में इतना व्यस्त हो गया कि अंतिम दर्शन के लिए आने में भी इतना समय लगा दिया । वरू ! तुम्हारे लिए तुम्हारे वचन के लिए मैंने मदनसेना से विवाह करके तथा युवराज को सुयोग्य बनाकर इस विस्तृत भारतवर्ष का संपूर्ण साम्राज्य सौंपकर अपना राज धर्म निभा दिया । जिस राजधर्म को निभाने का उस संध्याकाल तुमने मुझसे वचन लिया था , अब मैं वचन मुक्त हूं । तुम कहां हो ? वारूणी ! लौट आओ , मैं तुम्हारे साथ वैराग्य के मार्ग पर चलना चाहता हूं .....। चलिए महाराज राज्याभिषेक का समय हो रहा है कहकर मिहिरभोज ने कनिष्कराज के कंधे पर हाथ रखा । हताश कनिष्कराज राजमहल में लौट आये ।

 

दृश्य -4

एक माह पश्चात् महाराज कनिष्क राजगुरू अश्वघोष के साथ श्वेत वस्त्रों में गौतम बुद्ध की शिक्षाओं के प्रसार के लिए दीक्षा लेने गुरु की शरण में जा रहे हैं । सारा राज्य अपने महाराज की एक झलक देखने के लिए सड़कों पर उतर आया है तथा चारों ओर हलचल मची हुई है । राज्य में जगह - जगह गौतम बुद्ध की शिक्षाओं का प्रसार करने के लिए मठों व स्तूपों की रचना और निर्माण का कार्य जोरो से चल रहा है .....। वारुणी की इच्छापूर्ति के लिए महाराज कनिष्क ने संपूर्ण कार्य की देखरेख मिहिरभोज के हाथों में सौंप रखी है । युवराज और राजमाता मदनसेना अश्रुपूर्ण नेत्रों से चक्रवर्ती सम्राट कनिष्क को वैराग्य पथ पर विदा कर रहे हैं ....।


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