कुछ इस प्रकार चली मानव-विकास की यात्रा
मित्रो, प्रत्येक व्यक्ति सफल होना चाहता है, आगे बढ़ना चाहता है और चाहता है-आसमान की ऊँचाइयों को छूना। वह चाहता है कि सारी दुनिया में उसके अस्तित्व को उसके ही नाम से जाना जाए, माना जाए और स्वीकार किया जाए; परंतु क्या यह इतना आसान है?
मैं कहूँगा-हाँ दोस्तो, यह बहुत आसान है। इतना आसान कि आपको स्वयं भी जानकर आश्चर्य होगा।
परंतु एक चीज, जो इस सफलता के लिए, इस ऊँचाई को छूने के लिए सबसे ज्यादा जरूरी है, वह है आपके जीवन में, आपके आस-पास के लोगों और आपके कार्यक्षेत्र में, आपके संपर्क में आनेवालों से आपका व्यवहार। दूसरे शब्दों में जिसे हम लोक-व्यवहार भी कह सकते हैं। लोक-व्यवहार किसी भी व्यक्ति के जीवन में ऐसी महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाता है, जो बेजोड़ है, अनोखी है और चामत्कारिक भी।
आपका व्यवहार आपको सबका प्रिय और चहेता बना सकता है तो आपके प्रति लोगों में अलगाव और उदासीनता का भाव भी भर देता है। इस दूसरी स्थिति में आप बिलकुल अकेले पड़ जाते हैं।
जरा सोचिए, क्या नितांत अकेले होकर आप जी सकते हैं?
आज नहीं तो कल, निश्चित ही आपका उत्तर होगा-बिलकुल नहीं।
विश्वास मानिए, यही एकदम सही और लाख टके का उत्तर है।
थोड़ी देर के लिए उस काल की कल्पना कीजिए, जब व्यवहार नाम की कोई चीज प्रचलन में नहीं थी, तब मानव जीवन कैसा रहा होगा?
वह आदिकाल था यानी कि मानव जीवन का प्रारंभिक और शैशवकाल।
कहीं कोई नियम नहीं था, कोई भावना नहीं थी, कोई रिश्ता नहीं था। मानव मानव होते हुए भी जानवरों की भाँति जीवन-यापन करता था।
यदि हम मानव-विकास का प्रारंभिक इतिहास देखें तो हमें ज्ञात होगा कि मानव सभ्यता की शुरुआत समूह में रहने की आवश्यकता की भावना से हुई।
अब जरा कल्पना कीजिए आदिकाल की।
केवल मानव और पशु-और कुछ भी नहीं। जिसकी शक्ति अधिक होती थी, वही दूसरे पर विजय पा लेता था। 'जिसकी लाठी, उसकी भैंस' वाली कहावत मानव और पशु दोनों पर ठीक बैठती थी।
यदि मानव कमजोर हुआ तो पशु का ग्रास बना और यदि पशु निर्बल पड़ा तो मानव ने उसे अपना भोजन बना लिया। तब जीवन का सिर्फ और सिर्फ एक ही उद्देश्य था-येन-केन-प्रकारेण यानी कि चाहे जैसे हो, अपना पेट भरना और जीवित रहना।
धीरे-धीरे सभ्यता का सूर्योदय होना शुरू हुआ तो मानव को आत्मबोध होने लगा। उसे एहसास होने लगा कि वह पशुओं से श्रेष्ठ है। उसके बाद उसके मन में अपनी श्रेष्ठता सिद्ध करने की भावना जागी और अपनी श्रेष्ठता सिद्ध करते हुए उसने अपने अनुकूल कुछ नई स्थितियों का निर्माण किया।
आदि मानव ने शारीरिक शक्ति के साथ-साथ अपनी मानसिक शक्तियों को जगाकर उनका प्रयोग करना आरंभ किया। मस्तिष्क जागा तो उसने जान लिया कि अपने अस्तित्व को बनाए और बचाए रखने के लिए उसे एक प्रतिस्पर्धा में जीना होगा, जिसमें वह अकेला नहीं जी सकता। संभवतः इस प्रकार पहली बार उसके मन में सामूहिकता की भावना ने जन्म लिया। तत्पश्चात् सभी में मूक समझौता हो गया कि अपने अस्तित्व की रक्षा के लिए समूह में रहना आवश्यक है और समूह की शक्ति ही मानव का विकास कर सकती है। इस प्रकार मानव समूह बनाकर रहने लगा। फिर अपनी रक्षा और शिकार (भोजन) के लिए उसने पत्थर के हथियारों की रचना करके पशुओं से ऊँचा दर्जा प्राप्त कर लिया। पत्थर के हथियारों के उपयोग से उसे चिनगारी का बोध हुआ और उससे उसने अग्नि पैदा करके अपनी एक और श्रेष्ठता सिद्ध की। रहने के लिए अधिक सुरक्षित आश्रय भी बना लिया।
समय पंख पसारता रहा। धीरे-धीरे मानव पशु से श्रेष्ठतर होता गया विषय में भी बीतते समय के साथ उसने दूसरों के विषय में भी सोचना शुरू किया।
आपसी मेल-मिलाप की इस प्रक्रिया में मूल भावना थी सुरक्षा की, जिसे मानव ने पहचान लिया था और महसूस भी कर लिया था।
इसी सामूहिकता ने जन्म दिया समाज को।
समाज एक शब्द मात्र नहीं है-एक भाव है, एक विचार है, व्यक्ति के जीवन को निरंतर सकारात्मक दिशा देने के लिए। समाज की यह भावना जब मानव के भीतर पैदा हुई तो कुछ बंधनों ने भी जन्म लिया। इसी भावना को मूर्त रूप देने की घड़ी आई तो सबसे पहले मानव को अपनी खुली आजादी का त्याग करना पड़ा। उसे यह सोचने के लिए विवश होना पड़ा कि अस्तित्व सिर्फ उसी का नहीं है, दूसरों का भी है। आजादी के परित्याग की बात हो अथवा बंधनों में जीने का तरीका, सिर्फ उसके लिए नहीं है बल्कि यह एक पारस्परिक प्रक्रिया है। यदि दूसरों का साथ चाहिए तो उनका भी साथ देना पड़ेगा, फिर चाहे सुख हो अथवा दुःख, जीवन हो या मृत्यु, सभी में साथ देना पड़ेगा। आपसी मेल-मिलाप और साझेदारी का भाव आदि मानव में पैदा हुआ तो सभ्यता के सूरज ने भी चमकना शुरू कर दिया।
सामाजिकता के इसी भाव ने मानव को प्रेरित किया और उसके बुद्धिबल तथा चतुराई के बलबूते पर मानव सभ्यता विकसित होती गई। मानव-विकास की यह यात्रा आज भी निरंतर जारी है और जब तक दुनिया रहेगी तब तक जारी रहेगी।
लेकिन-
विकास-यात्रा पर निकला आदमी आज भी संकोची है।
जिस बात को उसे खुले दिल से, स्पष्ट शब्दों में और ऊँची आवाज में कहना चाहिए, वही बात वह संकोचवश कभी नहीं कहता। हालाँकि उसके सभी क्रिया-कलाप उसकी इसी भावना को दरशाते हैं कि वह प्यार करता है-
प्यार करता है अपनी संतान से
अपने माता-पिता से
अपने मित्रों से
अपने परिचितों व संबंधियों से
अपने धर्म से
अपने रीति-रिवाजों से
अपनी संस्कृति से
अपने समाज से
अपने देश से
यहाँ तक कि सारी दुनिया से
और अगर सितारों के आगे कोई जहाँ है तो उससे भी।
मगर अफसोस की बात यह है कि यह सब वह खुलकर स्वीकार नहीं करता, खुलकर कभी भी कह नहीं पाता-मैं तुम से प्यार करता हूँ।
इस पोस्ट का मूल यही है। यदि आप व्यावहारिक होना चाहते हैं तो स्वीकार करना सीखें और अपनी भावनाओ को भी अवश्य समझें। अर्थ और उसके मूल तत्त्व को ठीक से प्रकट करना सीखें, साथ-ही-साथ व्यावहारिकता के व्यापक अर्थ समझे बिना किसी को अपना लेना कोई महत्त्व नहीं रखता।
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